कुछ ऐसा हुआ कि रुक गयी मैं,
जैसे शोर और हलचल के बीच थम गयी मैं।
कुछ अच्छा सा नहीं लग रहा था,
बातें, हँसीं, चेहरे, कुछ सच्चा सा नहीं लग रहा था।
तो रुक गयी मैं।
समझने की कोशिश की पर समझ नहीं आया,
भुलाने की कोशिश की पर मन भुला नहीं पाया।
तो रुक गयी मैं।
कुछ कहना ज़रूर था, पर क्या फ़र्क पड़ता,
ये सोच कर चुप थी मैं और रुक गयी मैं।
क्यूँ हुआ ये, क्या हुआ ये, मैं ही क्यूँ, मेरे साथ ही क्यूँ,
ये सवाल थे, पूछने थे,
पर जवाब किसी किसके पास थे।
तो रुक गयी मैं।
कुछ वक़्त बीता,
एहसास हुआ बहुत देर से नीचे देख रही थी मैं,
नज़र झुकाये बैठी थी, क्या करूँ, खुश नहीं थी मैं।
नज़र उठायी तो देखा किसी ने हाथ पकड़ रखा था मेरा,
ना गिरने दिया, ना मुड़ने दिया, उसने ख़याल रखा था मेरा।
कभी दोस्त, कभी कोई हमदर्द, कभी माँ, कभी खुद का हाथ होता है वो,
पर नज़रें नीचे होती हैं तो दिखता नहीं है,
हम बोलते नहीं हैं, पूछते नहीं हैं, पर ऐसा नहीं है कोई सुनता नहीं है।
रुक गयी थी मैं, पर पीछे मुड़ने को नहीं,
बस रास्ता बदलने को, आगे बढ़ने को।
अच्छा था वो ठहराव भी, ज़रूरी था,
पर अब ज़िंदगी फिर से चल पड़ी है।
Beautiful ✨
👌🏻👌🏻👌🏻
Very well written!